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राजनीति में चाचा-भतीजे का विवाद नया नहीं

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राजनीति में चाचा-भतीजे का विवाद नया नहीं

पटना डेस्क। पिछले कुछ दिनों से लोक जनशक्ति पार्टी के अंदर चाचा-भतीजे का खेल मीडिया में सूर्खियां बटोर रहा है। हर जगह चाचा-भतीजे की कहानियों की ही चर्चा है। दरअसल, अपने भतीजे और लोक जनशक्ति पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान से नाराज़ होकर चाचा पशुपति कुमार पारस ने पांच दिन पहले तख्ता पलट कर दिया। सभी सांसद को लेकर चाचा ने भतीजे को अकेला छोड़ दिया।
लेकिन यह पहली बार नहीं जब राजनीतिक चाचा भतीजे की लड़ाई न्यूज़ चैनलों को धारावाहिक जैसे एपिसोड चलाने का अवसर दिया है। अपने देश में खासकर दूसरे के घर की पारिवारिक कलह को चाव से जाना और सुना जाता है। इसीलिए जब भी मौका मिला प्रिंट और एलेक्ट्रोनिक मीडिया ने ऐसे मुद्दों को रगड़ कर चलाया। पारस और चिराग से पहले 2016 के अंत में उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार समाजवादी पार्टी के अंदर चाचा शिवपाल और भतीजे अखिलेश यादव के बीच ऐसा ही हाई वोल्टेज ड्रामा चला था। वहां भी मामला ऐसा ही था कि पिता मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी को अखिलेश यादव चला रहे थे। चाचा को भी
राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का मन किया। मन में आया होगा कि बड़े भाई का तो सुन लिया अब भतीजे का क्यों सुनूं? ऐसी कई अंदुरुनी व्यक्तिगत और राजनितिक समस्याओं ने अंततः शिवपाल यादव को अखिलेश और समाजवादी पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोलने को विवश कर दिया। लिहाज़ा चाचा ने समाजवादी पार्टी का शिवपाल गुट बना दिया। चुनाव भी लड़ा, लेकिन कुछ खास हासिल नहीं हुआ। अब 2022 के चुनाव में क्या होता है देखना दिलचस्प होगा।
इसी तरह से चाचा-भतीजे के बीच का विवाद 2019 में महाराष्ट्र से भी सामने आया था जब शरद पवार के भतीजे अजीत पवार अपने चाचा और पार्टी सुप्रीमो शरद पवार के खिलाफ जाकर देवेंद्र फडणवीस को अपने विधायकों का समर्थन दे प्रातःकालीन शपथ ग्रहण भी करवा दिया था। कुछ घंटों के लिए वे उपमुख्यमंत्री भी बन गए थे। हालांकि अजीत सुबह को भटककर शाम तक घर वापस आ गए थे और विवाद दो से तीन दिन में समाप्त हो गया जिसके बाद यूपीए गठबंधन में आश्चयर्जनक रूप से उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने।

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